शून्य कमरा (Room Zero)
दिल्ली यूनिवर्सिटी के पुराने हॉस्टल 'राजेश्वरी भवन' की इमारत 1940 में बनी थी — लाल ईंटों की, बड़ी-बड़ी दीवारों वाली और रहस्यों से भरी। समय के साथ नए ब्लॉक्स बनते गए, लेकिन पुराने विंग को शायद ही कोई स्टूडेंट पसंद करता था। वजह थी उसकी हवा में पसरी वो अजीब सी खामोशी… जो दिन में भी रात जैसी लगती थी।
सिया मिश्रा, एक सामान्य-सी लड़की, जिसे साइकोलॉजी में एडमिशन मिला था, देर से दाखिला लेने के कारण उसे हॉस्टल का आखिरी कमरा मिला — Room No. 00. हॉस्टल ऑफिस में जब उसे चाबी दी गई, तो उसपर नंबर देखकर वो चौंकी — "00?" उसने पूछा, “ये कैसा नंबर है?” ऑफिस वाली आंटी ने बिना उसकी तरफ देखे बस इतना कहा, “बस ध्यान रखना… जब दरवाज़ा खुद से बंद हो, तो खोलने की कोशिश मत करना।” ये बात सुनकर सिया हँस दी — "ओह हॉस्टल की डरावनी कहानियाँ!"
कमरे में पहुँचते ही अजीब-सी ठंडक ने उसका स्वागत किया। बाकी कमरों से अलग, इस कमरे की दीवारें थोड़ी सीली हुई थीं, बल्ब थोड़ी-थोड़ी देर में टिमटिमाता था और घड़ी उलटी चल रही थी। खिड़की बाहर की जगह अंदर खुलती थी, और शीशा उसका चेहरा नहीं, बस परछाईं दिखाता था।
पहली रात, वो थक कर जल्दी सो गई। लेकिन रात के ठीक 3:00 बजे उसकी नींद खुली — दीवार पर हल्की सी नमी में कोई लिखा हुआ दिखा: "तुम पहली नहीं हो।" उसने लाइट जलाई — दीवार पर कुछ भी नहीं था। इसे सपना मानकर वो फिर सो गई।
दूसरे दिन उसे सीनियर लड़कियों से कुछ अजीब बातें पता चलीं — जैसे किसी को वो कमरा कभी नहीं allot होता, और अगर होता भी है, तो वो लड़की हॉस्टल छोड़ देती है। जब सिया ने अपनी चाबी उन्हें दिखाई, तो सबका चेहरा उतर गया। एक लड़की ने फुसफुसाकर कहा, “तू भाग ले बहन… ये वही कमरा है।”
रात दर रात, कमरे का व्यवहार और अजीब होता गया। घड़ी उलटी ही चलती रही, पंखा बिना स्विच के अपने आप चलता, और हर रात 3 बजे कोई दरवाज़ा खटखटाता — लेकिन बाहर कोई नहीं होता। शीशे में उसे एक और परछाईं दिखती — बिल्कुल उसी कद की, पर सिर झुका हुआ।
एक दिन, उसे अपने बैग की सबसे नीचे वाली ज़िप में एक डायरी मिली — जो उसकी नहीं थी। उस डायरी में किसी और की हैंडराइटिंग में लिखा था:
> "मैं भी यहीं रही थी… 00 नंबर रूम में। मेरा नाम नयना था। लेकिन अब मैं खुद को भूल गई हूँ। अगर तुम ये पढ़ रही हो, तो याद रखना — कमरे का दरवाज़ा खुद से कभी मत खोलना। वो जो दस्तक देता है, वो इंसान नहीं है… वो मैं भी हो सकती हूँ।”
सिया का शरीर सुन्न पड़ गया। उसने डायरी बंद की और उठकर शीशे में देखा — अब उसका चेहरा दिख रहा था… लेकिन आंखें किसी और की थीं।
उस रात वो दरवाज़ा फिर से खुद ही बंद हुआ। पर इस बार अंदर से एक धीमी आवाज़ आई — “सिया…”
अब उसकी हिम्मत जवाब दे गई। उसने चाबी घुमाई… और दरवाज़ा खोला।
कमरे की लाइट चली गई। सब कुछ काला। लेकिन हवा में एक अजीब-सी गंध थी — गीले बालों, पुराने कपड़ों और सड़े सपनों की।
जैसे ही अंधेरा छटा, उसने खुद को उसी कमरे में देखा — लेकिन बाहर से। अब वो कमरे में नहीं थी, बल्कि कमरे का हिस्सा बन चुकी थी। दीवार पर लिखा दिखा —
> “Room 0 doesn’t belong to you. You belong to Room 0.”
उसके बाद हॉस्टल में अफवाहें उड़ीं — “एक और लड़की गायब हो गई।”
जब हॉस्टल वार्डन ने ऑफिस रिकॉर्ड देखा, तो Room 00 का कोई allotment ही नहीं था। न उस नाम की कोई लड़की — 'सिया मिश्रा' — यूनिवर्सिटी में पंजीकृत थी
एक और नई लड़की को देर से एडमिशन मिला।
हॉस्टल की लिस्ट में आखिरी नाम — “प्रिया सक्सेना”
उसे जो चाबी दी गई, उसपर लिखा था — “00”
उसने हैरानी से पूछा, “मैम… ये कमरा तो लिस्ट में नहीं है?”
वार्डन मुस्कराई, उसकी आँखें थोड़ी गहरी थीं।
> “कुछ कमरों के लिए लिस्ट की ज़रूरत नहीं होती बेटा…
वो खुद अपने मेहमान चुनते हैं।”
नई लड़की प्रिया सक्सेना, जिसे Room 00 दिया गया था, अब हॉस्टल में adjust हो चुकी थी।
शुरू में सब सामान्य लगा… मगर 3 महीने बाद लड़कियों ने अजीब चीज़ें महसूस कीं —
हॉस्टल की दीवार पर बार-बार लिखा आ रहा था:
> "I remember now."
प्रिया की आँखें नींद में लाल हो जातीं
और सबसे अजीब — प्रिया कभी शीशे में नहीं दिखती थी…
एक दिन रात 3:00 बजे, प्रिया ने अपने फोन से selfie ली।
अगले दिन वो फोटो हॉस्टल की notice board पर खुद-ब-खुद print होकर लगी मिली।
उस फोटो में… Room 00 की सभी पुरानी आत्माएँ खड़ी थीं।
और सबसे आगे — सिया… उसके चेहरे पर वही मुस्कान… और प्रिया के कान में फुसफुसाती हुई:
> “अब तेरी बारी है... मुझे बाहर आने दे।”
वार्डन ने जब notice हटाया, उसके नीचे खून से लिखा था:
> “00 नंबर रूम अब बंद नहीं होता —
क्योंकि अब उसमें एक ‘दरवाज़ा’ नहीं, एक ‘मुंह’ है…
जो निगलता है… यादों को, नामों को… और पहचान को।”
शून्य कमरा" सिर्फ एक हॉरर कहानी नहीं है, ये उस डर का रूप है जो हमारे भीतर कहीं चुपचाप बैठा है। ये हमें सिखाती है कि हर इंसान के अंदर एक ऐसा कमरा होता है जिसमें वो अपने डर, दर्द, अधूरे सवाल और भूली हुई यादें छुपाकर रखता है। हम सबके भीतर एक ‘Room 0’ है — जिसे हम खोलना नहीं चाहते। लेकिन जब हम उस दर को नजरअंदाज करते हैं, भागते हैं, तो वही डर हमें धीरे-धीरे निगलने लगता है।
इस कहानी की सबसे गहरी सीख ये है कि कुछ दरवाज़े उत्सुकता से नहीं, समझदारी से बंद रखे जाते हैं। हर बार सच से भागना एक नए जाल को जन्म देता है। कहानी में सिया, नयना और फिर प्रिया — सबने किसी न किसी डर को नजरअंदाज किया और उनकी पहचान, उनका वजूद, धुंध में खो गया। “Room 0” उस समय का प्रतीक है जो उल्टी दिशा में चलता है — जहाँ तुम जितना पीछा छुड़ाना चाहो, उतना ही वो तुम्हें अपनी तरफ खींचता है।
इस कहानी से ये भी सीख मिलती है कि इंसान की सबसे बड़ी ताकत उसकी पहचान है — और सबसे बड़ा डर उसका मिट जाना। कहानी की आत्माएं, जिनका कोई नाम नहीं, बस इस बात का प्रतीक हैं कि जब हम अपने अतीत, अपने डर, और अपनी भावनाओं को दफन करते हैं, तो वो लौटकर आते हैं — और तब वो हमारी नहीं, हम उनके हो जाते हैं।
“शून्य कमरा” हमें ये याद दिलाता है कि डर बाहर नहीं, हमारे भीतर पलता है। और जब हम उस डर को स्वीकार करना शुरू करते हैं, तभी हम उससे मुक्त हो सकते हैं। वरना… एक दिन वही कमरा खुलता है — और हम उसमें हमेशा के लिए बंद हो जाते हैं।
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